नौकरी

कम्युनिस्ट लॉबी ने कैसे फिल्म इंडस्ट्री से समाज में बनाया ‘नौकरी’ का मकड़ जाल

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  • चन्द्रमौलि तिवारी


नौकरी कॉमरेडों का सदैव से प्रिय विषय रहा है। सत्तर अस्सी के दशक में जब फिल्म इंडस्ट्री पूरी तरह से कम्युनिस्टों के कब्जे में थी उस समय फिल्मों में उन्होंने पढे लिखे आदमी को नौकरी की तलाश में लगाकर रखा। उस दौर की लगभग हर दूसरी तीसरी फिल्म में बीए पास नौजवान डिग्री लेकर नौकरी मांगता फिरता था।

इसके आगे का काम किया जातिगत आरक्षण ने। जातिगत आरक्षण वालों ने सरकारी नौकरी को सामाजिक न्याय बनाकर खूब बेचा है। उनका यह धंधा दोहरा लाभ देता है। एक इससे उनकी जाति वालों का राजनीतिक ध्रुवीकरण होता है और दूसरा जाति में निहित रोजगार को छोड़ने से कंपनियों को नये नये क्षेत्र में कारोबार का मौका मिलता है।


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ये दो ऐसे कारण हैं जिससे पढा लिखा व्यक्ति का मतलब ये हो गया कि वह कहीं नौकरी करता हो। वरना भारत का समाज उद्योजक समाज रहा है। आज जिन जातियों को आरक्षण की लाइन में लगाया गया है कभी उन जातियों के हाथ में ही सारा उत्पादन तंत्र होता था। इस उत्पादन तंत्र को नष्ट करने के लिए विदेशी पैसे की मदद से इस देश में ब्राह्मणवाद फर्जी बहस खड़ी की गयी ताकि उस व्यवस्था को ही शोषक बता दिया जाए जिस व्यवस्था ने उन्हें संपन्न बना रखा था।

वरना भारतीय समाज में नौकरी बहुत निम्न विकल्प समझा जाता था। उत्पादन सर्वश्रेष्ठ कार्य होता था, फिर व्यापार और उसके बाद नौकरी। लेकिन अब इसको सामाजिक रूप से पलट दिया गया है। अब नौकरी को सर्वश्रेष्ठ कर्म कहा जाता है, फिर व्यापार और उत्पादन तो कोई करना नहीं चाहता। वह काम बड़े बड़े कॉरपोरेट घराने अपने हाथ में ले चुके हैं।

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