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अविनाश त्रिपाठी
कुमार विश्वास और इमरान प्रतापगढ़ी : दोनों मंच के कवि, हालांकि कवि के तौर पर कुमार विश्वास का कद बहुत ऊंचा रहा है। दोनों लोकसभा चुनाव के जमानत जब्ती लेकिन इमरान राज्यसभा पहुंचने के करीब और कुमार विश्वास सार्वजनिक तौर पर राज्यसभा जाने की इच्छा जताने के बाद भी कभी नहीं पहुंच पाए।
तो वो क्या चीज है जिसकी मदद से कम योग्य या कम विख्यात होने के बाद भी इमरान प्रतापगढ़ी राज्यसभा पहुंचने वाले हैं और कुमार विश्वास का ये सपना सपना ही रह गया। ये है पार्टी का चयन।
आप किसी सेक्युलर पार्टी में भारत माता को विधवा कह कर, अतीक जैसे अपराधियों का गुणगान करके, शाहीनबाग में भड़काऊ भाषण देकर जमानत जब्त होने के बाद भी राज्यसभा पहुंच सकते हो लेकिन कितने भी निष्पक्ष बनने की नौटंकी करते हुए कलावा बांधकर, वेदों के श्लोक सुनाकर, स्वयं को राष्ट्रवादी बताकर सेक्युलर पार्टी में survive नहीं कर सकते। फिर चाहे आप कितने भी उर्दू, शायर, मुशायरा करते रहो।
भाजपा के नेताओं को पता है कि वेद की किस रिचा में सबसे पहले राष्ट्र शब्द आया है ये बोलकर भजपा नेताओं का मजाक उड़ाते रहो लेकिन आपका हाल वो ही होगा जो राजनीतिक हाल कुमार विश्वास का हुआ है।
मुझे इमरान प्रतापगढ़ी के सांसद बनने से कोई समस्या नहीं है। 70 साल में ये ही राजनीति हमने बनाई है आपको नाम लेना डॉ अब्दुल कलाम का और नेता बनाने है अमानतुल्लाह, आजम खान और शहाबुद्दीन जैसे।
पता नहीं रहीम हम ब्राह्मणों की सच्चाई क्यों समझ पाए
तो कांग्रेस अपने हिस्सा का आजम या अमानतुल्लाह इमरान प्रतापगढ़ी में तलाश रही है तो क्या समस्या है? मुझे खुशी होती है कुमार विश्वास की हालत देखकर वो चाहे खुद को आज का कितना भी रामधारी सिंह दिनकर बताने में लगे रहें, ये वो दौर नहीं जब दिनकर कांग्रेस से राज्यसभा भेजे जाएंगे, अब तो प्रतापगढ़ी जैसे ही सम्मान पाएंगे।
कुमार विश्वास और इमरान प्रतापगढ़ी: जिस दिन अन्ना के मंच से भारत माता को संघ माता कहकर अपमानित किया गया था उसी दिन कुमार विश्वास को समझ जाना चाहिए था कि या तो अपने अंदर का प्रतापगढ़ी ढूंढ लें, नहीं भविष्य में तिरस्कार के लिए तैयार रहें।
अब कुमार विश्वास जब राज्यसभा में इमरान प्रतापगढ़ी को बोलते देखेंगे तो उसी महान विचार से गुजरेंगे कि ये कुछ था थोड़ी हमारे सामने, इसे तो हम ही मंच पर लाए थे, आज देखो कहां पहुंच गया। फिर अपने हाथ का कलावा देखेंगे तो समझ आएगा वो कहां हैं और वहां क्यों रह गए।
सावरकर के सामने बार-बार मौका आया था कांग्रेस में जाने का, लेकिन उन्होंने सारी जिंदगी का उपहास चुना, कांग्रेस नहीं चुनी। उनके अलावा डॉ हेडगेवार जी से लेकर बोस तक फिर कांग्रेस (ओ) के नाम पर सारे पुराने कांग्रेसियों को जब जब समझ आता गया, लोग कांग्रेस छोड़ते गए। कुमार विश्वास भी उसी कड़ी का हिस्सा हैं। यहां कांग्रेस का अर्थ सेक्युलर राजनीतिक संस्कृति से है।
लेकिन मैं वो दिन देखना चाहता हूं जब इन सेक्युलर पार्टियों की वो हालात हो जाए जब वो ऐसों को राज्यसभा भी न भेज पाएं।
जब अब्दुल कलाम जैसा कोई आएगा तब फिर से सम्मान के साथ राष्ट्रपति बनाया जाएगा। वरना भारत माता को डायन कहने वाले, विधवा कहने वालों के और उन्हें जगह देने वाली पार्टियों के अभी और बुरे दिन आने हैं। कुमार विश्वास बताते है कि सेक्युलर पार्टी में राष्ट्रवादी विचार रखने पर आपका क्या हाल होता है।