- राजीव मिश्र
कॉमनवेल्थ खेलों की रिपोर्टिंग देख रहा हूं, जब कोई पहलवान फाइनल में पहुंचता है तो मीडिया यह नहीं लिखती कि हम एक और गोल्ड की ओर बढ़ रहे हैं, बल्कि यह कहती है कि कम से कम एक सिल्वर पक्का हो गया। कोई बॉक्सर सेमीफाइनल में पहुंचता है तो कहते हैं कि कम से कम एक ब्रॉन्ज तो आयेगा।
वैसे होने को दोनों स्टेटमेंट फैक्चुअली सही हैं लेकिन मनःस्थिति में एक महत्वपूर्ण अंतर है और वह अंतर चैंपियन बनाता है या नहीं बनाता। यह जो मनःस्थिति है वह पूरे देश की स्थाई मनःस्थिति है. और हमारे खिलाड़ी भी इसका कुछ बहुत तो रखते ही होंगे. वैसे जो एथलीट मैदान में या रिंग में या मैट पर है वह अपना शत प्रतिशत ही देता है, लेकिन फिर भी फर्क पड़ता ही होगा।
आपको अक्सर भारतीय खिलाड़ी थोड़े से चूकते, आखिरी मिनट में गोल खाते दिखाई देते हैं, शायद यह इसी मानसिकता का परिणाम है। अगर हम अपनी इस सामूहिक मनःस्थिति को बदल पाएं तो पूरा विश्वास है कि हमारे बहुत से मेडल्स के मेटल का रंग बदल कर स्वर्णिम हो सकता है।
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हालांकि यह आज की स्थिति तीस चालीस साल पहले के मुकाबले हजार गुना बेहतर है। एक समय ऐसा भी हुआ है जब हमें एशियाई खेलों में सिर्फ एक कबड्डी का गोल्ड मिला है। जब कॉमनवेल्थ में एक कुश्ती और कभी कभार बैडमिंटन छोड़कर कोई और मेडल नहीं आते थे। ओलंपिक्स में गोल्ड तो क्या, कोई भी मेडल वर्षों वर्षों नहीं आया।
जब टीमें विदेश सिर्फ इस लिए जाती थीं कि कोई सरकारी अफसर उनके मैनेजर बनकर सरकारी खर्चे पर विदेश घूम सकें। एक बार एक इंडियन बॉक्सर को यह बताने वाला कोई नहीं मिला था कि उसका मैच कहां और कब है क्योंकि बेचारे की अंग्रेजी कमजोर थी और उसके मैनेजर साहब शॉपिंग करने गए हुए थे। एक वेटलिफ्टर ने मैच के एक दिन पहले जमकर बीयर पिया और अगले दिन ओवरवेट होने की वजह से डिस्क्वालिफाई हो गया।
किसी को कोई शिकायत भी नहीं होती थी क्योंकि किसी को मेडल की उम्मीद यूं भी नहीं होती थी। मेरे स्कूल के बहुत से मित्र स्टेट और नेशनल लेवल के एथलीट थे लेकिन किसी को कभी भी किसी समय एशियाड या ओलंपिक्स का सपना भी नहीं आता होगा।
आज हम बहुत दूर आए हैं। हमने बहुत से ऐसे खेलों में पदक जीतना शुरू किया है जो पहले खेलते तक नहीं थे। देश के युवा ने सपने देखना शुरू किया है। लेकिन अब इन सपनों का रंग बदल कर सुनहरा करने की जरूरत है।