-
प. कल्लूराम मार्क्सवादी
हां भाय। सरकारी नौकरी की जिद में वर्षों तक मां बाप की छाती पर मूंग दलना ही तो संघर्ष होता है। सही जगह महनत को चैनलाइज कर के, मार्केट में किस स्किल की आवश्यकता है उसका अध्ययन कर के उस स्किल सेट को सीख कर फिर मैदान में उतर कर सरवाइव करने वाले तो चू### हैं? युवाओं के मुद्दों पर तो हमारा अधिकार ही नहीं है? 21-22 की उम्र से लगातार मेहनत कर के ऊपर बढ़ने वाले हम चूतिये क्या जानें “संघर्ष” क्या होता है!
हमारे आगे कोई रिपोर्टर माइक लेकर खड़ा नही होता, काहे से कि हमारी फितरत रन्नी रोना गाने की नही है। यही मूल कारण है कि हमारे जैसे लाखों युवाओं की कोई आवाज भी नहीं है।
अग्निपथ स्कीम और फौज में जाने वाले ‘इच्छुकों’ की मानसिकता
फेसबुक पर थोड़ा मोड़ा एक्सप्रेस करने लगें तो उसपे भी चार गो अस्पिरेंट आकर चार बात सुनाने लगता है।
हमारे जैसे भारी टैक्स भरने वाले चूतिये को चुप ही रहना चाहिए। काहे से कि “संघर्ष” तो हमने किया ही नहीं ना! सरकारी नौकरी की जिद…..